रिश्‍तों का  भी  गणित  होता है।

चाहे  उसमें  दो  जमा  दो  चार  न  होते  हों  और  चार में से  दो  घटाने  पर  दो  न  बचते  हों, लेकिन  तमाम  जोड़  बाकी  का  नतीजा यह कि रिश्‍तों का  भी  गणित  होता है। किसको  किसमें  जमा करें  कि  रिश्‍ते  घटने  से  बच जाएं। कौन अपना भाग छोड़े, कौन  किसके भाग का फल तय  कर  दे   यही  जोड़तोड़ अगर  रिश्‍ते  हैं  तो  रिश्‍तों  को  प्रेम  के  खाते  में  नहीं, लेन देन की  बहियों  में  दर्ज  क्‍यूं  ना  किया  जाए।

जमा  करो  कि  घटाओ किसी से  कुछ  भी,  परिणाम  एक  सा  ही  है..  लेनदार  हमेशा  लेनदार  रहेगा  और  देनदार  को  बस  चुकाते  जाना  है।  गणित  का  सच  ही  समाजशास्‍त्र  का  सच  है।  पुरुष  का  पुरुष  होना  और  स्‍त्री  का  स्‍त्री होना ही सच  है। यही परिवार  का  सच  है  और  प्रेम  का  भी  सच ।विवाह प्रेम  करके  किया  कि  विवाह  करके  प्रेम  किया  या  कि  प्रेम  ही किया  बस   क्‍या  फर्क। फर्क  इससे  भी  नहीं  पड़ता  कि  मंजरी प्रेम  का  अर्थ  ही  जिम्मेदारी  मानती  है  कि  सुमन के जिम्‍मे जिम्‍मेदारियों  को प्रेम  समझ  कर  जीना  आया है।

" बिना  प्रेम ये  सारी  जिम्‍मेदारियां मन  से  नहीं  निभाई  जा सकती।"
"  तू  इतना  सोचती  क्‍यों  है, कोई  तय थोड़े  ही  होता  है कि शादी  हो  जाएगी तो प्यार  होगा  या  नहीं  और  अगर प्यार नहीं हुआ, तब भी ठीक  से  रखता  रहे, निभाता  रहे तो  दिक्‍कत  नहीं  होगी  !  " 

मेधा खुद को  पुरुष  में  समाहित  कर  ले  तो  उसे  प्रेम  महसूस  होगा, सुमिता  को  अपने  मां  के  अनुभव  भी  याद  हैं  अब  तक जिसने उस समय 'लिव  इन'  में  रहने  की  हिम्‍मत  की  थी  जब  'लिव  इन'  शब्‍द भी कहीं चलन  में  न  था। साथ  रहना  और  निभाना,  निभाते  चले  जाना, प्रेम में  दी  गई  इतनी  सी  आजादी  है  औरत  के  हिस्‍से। पाना  है  तो  मिटना  होगा,  मिट जाओ  तो  प्रेम  है  ना  मिट  सकी  तो  विद्रोह  इतना  सा  गणित  है। रिश्‍तों  का  गणित सरल  नहीं  है, बेशक  नहीं  है  पर  है  तो गणित  ही   गणनाओं  से  बाहर  कोई  रिश्‍ता  होता  है  क्‍या  स्त्री  और  पुरुष  के  बीच    ? सवाल  टकराकर  लौट  रहा  है। जवाब  नहीं  आ  रहा  कहीं  से आप कुछ  नहीं  बोल  रहे, कोई  कुछ  नहीं  बोल  रहा। और इधर ईश्‍वर  भी  चुप  है!

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