अल्हड़ प्रेमिका
तेरी गुलाबी और पतली ओठों कि तरह, तेरी ये ज़िन्दगी भी गुलाबी रंगत लिए बैठी है। तेरी ये ओठ, सेकड़ों गुलाबों का अर्क है, तुम्हारी ये आंखे समुन्द्र कि घेराइयों में छिपे रेतों के बादलों के अंदर छिपी सिप में मोती जैसे, तुम हंसती हो तो सुबह कि पहेली किरण कि तरह जो पुरे फिजाओं में फैल एक अलग शांति, सुकून देती है।
तुम मेरी ठीक उस अल्हड़ प्रेमिका कि तरह महसूस होतीं हो जो अक्सर मेरी क्लापनाओं में ज़िंदा रहती है जिसकी रूह, सिर्फ मै महसूस कर सकता हूं, सिर्फ मै..... क्योंकि उस किरदार कों मैंने लिखा है, जब मै आँखें बंद करता हूं उस नील गगन के निचे खुले खेतों में बाहें फैलाये तो महसूस होता कि कोई हल्की पिली रेशमी दुपट्टा मेरी आँखों और माथे कों स्पर्श कर गुजरा हो, सरसों कि मदमस्त हवा ने सारी तितलियों कों बुला कर तेरी आंचल कि गोद में बैठा दी हो, आवाज़ लगाती तुम तो एक साथ कई घूंगुरु कि आवाज़े कानों में गुजने लगती मानो पुरी हैवेली गूंज रहीं हो, मोर अपने मलंग में रहता, कोयल अपने सुरों में।
अल्हड़ प्रेमिका तुम्हारी हर एक अदा कभी-कभी फरेबी लगती, भला इतनी खूबसूरत कोई हो सकती है क्या?
हमारे बीच प्रेम कि हवा नहीं चल सकी, मेरे रूह को स्पर्श तो कि और तुम्हारे रूह तक पहुंचते-पहुंचते ट्रैफिक कि उस जाम में फसी रहीं जहाँ तुम लोगों से घिरी रहीं और वो चौरहा चारों तरफ से और मै सिग्नल पर खड़ा तुम्हारी नज़रों कों पढ़ने कि कोशिस कर रहा था कि तुम उस चौरहा के कौनसे रास्ते से निकलती हो क्योंकि बताने वाले कि तादाद काफी थी और समझाने वाले कि कम, हम नहीं लिख सकें राधे-कृष्ण कि तरह प्रेम-गाथा पर हमने किया एक उजाऊ प्रेम जो ऊगा तो पूरा पर हमारे जेहन तक ही सिमित रहा, हम एक दूसरे से कुछ कहे पाते उससे पहले सीमित कर लिए हमने अपने दायरे।
तुम्हारा हसंकर हाथ थाम लेने वाली अल्हड़ता नहीं भुला तुमने तो अनजाने में ही मेरे कंधो पर हाथ रख अपने स्पर्श का और अपने होने का एहसास दिलाया था जो मेरे जेहन तक उतर गयी,
तुम्हारे साथ कॉफी कैफे पर बैठना सर्द मौसम कि शाम, घंटों एक दूसरे के हाथों कों पकड़े रहना तुम्हारे हाथों कि गर्माहट महसूस कर पा रहा था और उस दौरान मेरे हाथ थंडे पड़ जाना मानो गलेसियर का आधा भाग मेरे मन में उठाकर रख दिया गया हो, याद है तुम्हारे गाल बिल्कुल लाल से हो गए थे, शर्म से नज़रे झुकें हुए सिर्फ मुस्करा रहीं थी तुम....उस दिन महसूस किया इश्क़ कि खूबसूरती कों... ओह्ह... वो पल फिर लौट आता किसी मौसम कि तरह।
आज हम अलग हो चुके है बितें शाम कि तरह, बेवजह।
शायद कोई बात खटकने लगी थी या मेरा कुछ ना पसंद आना या फिर मेरे मन कि जुबान... वो अल्फाज़ ना कहे सकी जो दिल के लिए सुकून बनने थे। अब चुकीं अब कहने कों कुछ रहा नहीं तो ये मौन अब काटने को दौड़ते है,
वक्त के एक वक्त में बात करते ना थकने वाले दो अजनबी आज मौन तलाश रहे हैं मानो बस पहाड़ों कि सबसे उचि चोटी पर ट्रेकिंग कर कुछ पल सुकून के गोद में खेले।
#पीयूष....$
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