ख्वाब
ख़्वाबों कों सजायें मंजिल कि तलाश, किसी ऊँची ईमारतो कों निहारते-निहारते बस अपने ख़्वाबों में खो जाना ये कुछ इस तरह से है कि तलाश खत्म हुई नहीं कि जेहन में करुणा रस के भाव उतरते ही आँखों में हल्के पानी के पर्दे चढ़ जाते हैं दरसल ख़्वाबों का किया है कि दायरे बढ़ते चले जाते हैं जैसे मंजिलों से सजी एक बड़ी ईमारत।
शाम, किसी छत पर बैठे अपने ओठों पर दो उँगलियाँ लगाए अपने ओठों से भाप के धुआँ उड़ाते जेहेन में सवालों के बौछार महसूस करना मानो दर्जनों तीर.... कमान से निकल मेरे शरीर में एक साथ लगी हो और ईमारतो को निहारते-निहारते अपने अंदर का एक और पीयूष जागृत अवस्था में ला खड़ा करना और बस उससे ही बातें करने लगना मानो अब किसी कि भी ज़रूरत नहीं बस मैं और मेरे अंदर का दूसरा पीयूष जो अभी कुछ देर पहले ही मेरा मित्र बना। जागृत अवस्था वाला किरदार हमें समझाता हैं कि नहीं "इतनी जल्दी क्यों रुकना जब ख़्वाब बड़े रखें हो तो उसे पालना भी तो तुम्ही को है, खर्चे भी तो होंगे कि नहीं...
साहब ख्वाबों कि भी क़ीमत होतीं हैं जो सही दिशा में महेनत करके हासिल होतीं हैं और कुछ दस प्रतिशत किस्मत भी।
#पीयूष....$
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