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चापलूसों के इस नगरी में

मै कभी किसी महफ़िल का हिस्सा नहीं बना। क्यों, पता नहीं।  शायद आज के दौर में हर छोटे-बड़े रिश्तों में दिमाग़ लगाने वालों की तादाद में, मै अकेला मुस्कराते चहेरे से सबको धन्यवाद देता रहा और चापलूसों की इस नगरी में, मै बेचारा  एक मुर्ख अपने आपको बुद्धिमान और योग्यवान समझता रहा। पीयूष-

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